मध्यकालीन युगद्रष्टा
जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्य जी महाराज
भारतीय आर्ष परंपरा को सर्वविध गौरवान्वित करने वाले वैष्णवचक्रचूडामणि जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी महाराज का धार्मिक-सांस्कृतिक नवजागरण में अप्रतिम योगदान रहा है। उनके विराट् व्यक्तित्व और कर्तृत्व ने उत्तर भारत में श्री रामभक्ति धारा को जन-जन तक पहुँचाया।उनकी आध्यात्मिक चेतना ने भारतीय परंपरा को गौरवान्वित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने भक्ति देवी को जन-जन के हृदय-सिंहासन पर विराजमान कर दिया और पूरी वैष्णवपरंपरा उन्हें पाकर गौरवान्वित हो गई। इनके विषय मैं प्रसिद्ध है – भक्ति द्राविड़ उपज्यौ लायौ रामानंद। स्पष्ट है कि आर्ष परंपरा की भक्ति-भागीरथी को इस भव्य भगीरथ ने जनमानस तक पहुँचाकर संपूर्ण युग का कायाकल्प कर दिया।
जीवनवृत्त
स्वामी रामानन्दाचार्य का अवतरण पुण्य प्रदेश प्रयागराज के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम पंडित पुण्य सदन शर्मा और माता का नाम सुशीला देवी था। रामानन्द संप्रदाय के मतानुसार इनका प्राकट्य माघ कृष्ण सप्तमी संवत् 1356 को हुआ।
कुछ विद्वान् इनका काल (1356-1470ई•) मानते हैं।इससे संबद्ध अनेक मत-मतांतरों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इनका जन्म चौदहवीं शताब्दी के मध्य में हुआ और लीलासंवरण पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में।
शिक्षा-दीक्षा और संन्यास
इनकी शिक्षा- दीक्षा काशी में संपन्न हुई। जन्मजात अप्रतिम मेधासंपन्न कुशाग्रबुद्धि श्रीरामानन्द जी ने अल्पकाल में ही शास्त्र-पुराणों में प्रवीणता प्राप्त कर ली और एक संन्यासी के रूप में भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना के पुनरुद्धार के लिए दंड धारण कर चल पड़े। आचार्यश्री ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ वैष्णवमताब्जभास्कर में उद्घोषित किया- सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मता: अर्थात् सभी जन ईश्वर के चरणों में शरणागति के सदैव अधिकारी हैं। निश्चितरूपेण यह भारतीय मध्यकाल में एक असाधारण क्रांति का स्वर था,जिसने समाज के हताश,निराश और उदास जनमानस को आशा,विश्वास और उल्लास का अमृत स्वर प्रदान किया।
शिष्य-परंपरा
जनजीवन की पारंपरिक कल्मषता को प्रक्षालित कर उन्होंने सार्वभौम वैष्णवता अथवा मानववाद पर आधारित एक ऐसा मत स्थापित किया,जिसपर सभी वर्ण-जाति के लोग उनका शिष्यत्व ग्रहण कर साथ-साथ चलने लगे,उनमें प्रमुख थे- श्री अनन्तानन्दाचार्य, श्री सुरसुरानंद जी, श्री सुखानन्द जी, श्री नरहर्यानंद जी, श्री योगानंद जी, श्री पीपा जी, श्री कबीर दास जी, श्री भावानन्द जी, श्री सेन जी, श्री धन्ना जी, श्री गालवानन्द जी तथा श्री रैदास जी। इनका उल्लेख भक्तमाल में द्वादश प्रमुख शिष्यों में किया गया है-
अनँतानंद कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावति नरहरि।
पीपा भावानन्द रैदास धना सेन सुरसुर की घरहरि।।
औरो सिष्य प्रसिष्य एक ते एक उजागर।
उपर्युक्त बारह शिष्य द्वादश महाभागवत के नाम से जाने जाते हैं। ये द्वादश आदित्यके नाम से भी जाने जाते थे। इन शिष्यों के अतिरिक्त इनके अनेक शिष्य युगोद्धार के लिए सन्नद्ध थे। यहाँ एक तथ्य ध्यातव्य है कि भक्तमाल में यह कहा गया है कि रामानँद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जग तरन कियो।। अर्थात् स्वामी रामानन्दाचार्य ने भवतारण के लिए श्रीरामचंद्र जी के समान सेतु के निर्माण किए। वैश्वानर संहिता में कहा गया है – रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले।
इस संबंध में यह छंद भी प्रचलित है- जगद्गुरु आचारज भूपा। रामानन्द राम के रूपा।। यह सच है कि उन्होंने सभी वर्णो और जातियों को अपने संप्रदाय में दीक्षित किया,परंतु वर्णाश्रम की पवित्रता के लिए सभी को कठोर निर्देश भी दिए। सारतः उन्होंने भारतीय आर्ष परंपरा के स्वर्णिम मंजूषा में सुशोभित वर्णाश्रम व्यवस्था का युगीन परिवेश में कायाकल्प किया, जिसके मर्मस्थल में श्रीराम विराजमान हैं।
शिष्य-परिचय
इनके उपर्युक्त बारह शिष्यों में संत कबीर और संत रैदास अतिप्रसिद्ध हुए। इन सभी के संक्षिप्त परिचय भक्तमाल और अन्य स्रोतों के आधार पर प्रस्तुत हैं-
- श्री कबीरदास जी (1398ई•- 1518ई•) स्वामी जी के ऐसे शिष्य थे, जो पूर्णतः निर्गुणोपासक थे। उन्होंने लौकिक और पारलौकिक धरातल पर लोगों को जागरुक किया और समाज एवं देश को विकृत करने वाले पाखंड और धर्मांधता पर कड़ा प्रहार किया। इनके मतानुसार ज्ञान और भक्ति से अंतस्तल में रमे ब्रह्म की खोज और प्राप्ति ही सहज समाधि है।इनके छंदादि की शैली बड़ी शक्तिशाली थी। कबीर की रमैनी,साखी, बीजक,बानी,शबदी आदि अनेक रचनाएँ मिलती हैं।विद्वान् उन्हें धर्म-सुधारक और क्रांतिकारी दार्शनिक चेतना से संपन्न मानते हैं। वे संत-मत के असाधारण प्रतिभासंपन्न पथप्रदर्शक थे। वे कहते थे- मैं कहता आँखिन की देखी,तू कहता कागद की लेखी। वे सर्वदा ज्ञान एवं पराभक्ति की आनंदमयी अवस्था में स्थित रहते थे। वे जगत् के प्रपंच से सर्वथा दूर थे। कबीरदास जी ने स्वामी रामानन्दाचार्य को अपना सद्गुरु माना है – सद्गुरु के परताप तें मिटि गयौ सब दुख द्वन्द्व। कह कबीर दुबिधा मिटी, गुरु मिलिया रामानन्द।। अन्यत्र भी कबीर ने घोषणा की है- काशी में हम प्रकट भये रामानन्द चेताये
- श्री रैदास जी- संत रैदास का मध्ययुगीन संतों में विशिष्ट स्थान है। उनका जन्म काशी में हुआ था।रैदास की पत्नी का नाम लोना था। उनके लिए ब्रह्म अनुभूति और जिज्ञासा का विषय है। उनके छंद बड़े प्रभावी होते हैं। इनसे प्रभावित होकर मीराबाई इनकी शिष्या बन गई थी। संत रैदास ने स्वीकार किया है कि रामानन्द गुरु से प्राप्त राम-नाम का अमृत पीकर मैं श्रेष्ठ हो गया-
रामानन्द मोहि गुरु मिल्यो पायो ब्रह्म-बिसास।राम नाम अमी रस पीओ रैदास ही भयो पलास।।
- श्री सेन जी – श्री सेना नाई जी किसी राजा के आश्रित थे। कहा जाता है कि एक दिन भगवान् स्वयं उनके रूप धारण कर राजा के पास गए और उनकी सेवा से राजा अत्यंत प्रसन्न हुए। बाद में सेना जी के वहाँ पहुँचने पर सारा रहस्य खुला तो राजा चमत्कृत हो गए और भगवान् के दर्शन के लिए जीवन भर के लिए आभारी हो गए।ऐसा भी कहा जाता है कि उन्होंने राजा को अपने दर्पण में ईश्वर के दर्शन कराए और राजा चमत्कृत हो गए। इन्होंने अपने एक अभंग में कहा है- हम हजामत बनाते समय विवेकरूपी दर्पण दिखाते हैं, वैराग्य का चिमटा चलाते हैं, सिर पर शांति का उदक छिड़कते हैं और अहंकार की चुटिया घुमाकर बाँधते हैं। आदि-आदि। वे भगवान्नाम के अनन्य साधक थे। प्रभु सदा के लिए उनके उन्मुख ही बने रहते थे।
- श्री पीपा जी- श्री पीपा जी एक राजा थे।उनकी अनन्य निष्ठा और भक्ति देखकर स्वामी रामानन्दाचार्य ने उन्हें दीक्षा दी थी।उनके जीवन से संबद्ध अनेक भक्त्यात्मक कथाएँ हैं। वे परमभक्त थे और उस समय के अद्वितीय समाज सुधारक, धर्मोद्धारक और प्रकांड पंडित थे।वे एक राज्य के अधिपति होकर भी जीवन भर साधनारत रहे।
- श्री धन्ना जी- श्रीधन्ना जी जाति के जाट थे। वे बाल्यावास्था से ही भगवान् के अनन्य भक्त थे और उनके भोग को भगवान् स्वयं आकर ग्रहण करते थे।उनकी अनेक चामत्कारिक कथाएँ हैं। परमभक्त, पुण्यवान् भक्त श्रीधन्ना जी की भगवद्भागवत सेवा प्रशंसनीय थीं।
- श्रीअनन्तानन्द जी- श्रीअनन्तानन्द जी महाराज का जन्म माता सरस्वती जी के आशीर्वाद से कार्तिक पूर्णिमा सं 1363 को एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। आपके पिता पंडित श्री विश्वनाथ मणि त्रिपाठी सनाढ्य ब्राह्मण थे। वे भगवद्भक्तिरूप समुद्र की मर्यादा थे। पद्मजा श्रीजानकी जी ने आपके सिर पर अपना वरदहस्तकमल रखकर आशीर्वाद दिया।इनकी दीक्षा काशी के पंचगंगा घाट पर चमत्कारिक रूप से हुई। गुरु स्वामी रामानन्दाचार्य उन्हें अपने आश्रम में लाये और उनको राममंत्र की दीक्षा देकर उनका नाम अनन्तानन्द रख दिया।
- श्रीसुखानन्द जी- श्रीसुखानन्द जी का जन्म श्रीजानकी नवमी को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री त्रिपुरारि भट्ट और माता का नाम श्री गोहावरी बाई था। ये अपने पदों में सुखसागर की छाप लगाते थे। इनके अंतस्तल में प्रेमवारिधि उमड़ता रहता था और इनके नयन निरंतर बरसते रहते थे।भक्तमाल के अनुसार- ये सन्तसमुदायरूपी कमलवन का पोषण करने के लिए सूर्य तथा अत्यंत निर्मल, सरस अमृत के सरोवर के समान था। ऐसा कहा जाता है कि भगवद्धाम जाने के समय स्वयं श्रीहनुमान् जी प्रकट हुए और आप उनमें लीन हो गए।
- श्रीसुरसुरानन्द जी- श्रीसुरसुरानन्द जी का जन्म वैशाख कृष्ण नवमी, गुरुवार को हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित सुरेश्वर जी शर्मा और माता का नाम श्रीमती देवी जी था। उन्होंने एक घटना के क्रम में दही बाड़ा के भोजन के पश्चात् उदर से हरी तुलसी, फूल और रेणु को वमन के रूप में बाहर किया-पुहुप रेनु तुलसी हरी। अंत में वे अयोध्याधाम में श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के दर्शन प्राप्त कर दिव्य धाम साकेत प्रस्थान किए।
- श्रीनरहर्यानन्द जी- श्रीनरहार्यानन्द का जन्म वैशाख कृष्ण तृतीया संवत् 1491 को वृंदावन के समीप एक ग्राम में हुआ था। इनकी माता का नाम अंबिका देवी और पिता का नाम श्री महेश्वर मिश्र था।भक्तमाल सुमेरु गोस्वामी तुलसीदास इनके परम शिष्य थे।नरहर्यानन्द की साधनास्थली चित्रकूट थी। वहाँ पर आपको भगवान् श्रीसीताराम के दर्शन हुए। भगवान् शिव ने उन्हें श्रीरामचरितमानस का रहस्य बताया और गोस्वामी तुलसीदास को उपदेश देने का आदेश दिया।
- श्रीसुरसुरानन्द की पत्नी श्रीसुरसुरी जी- श्रीसुरसुरी जी पातिव्रत्य की पर्याय थीं। जंगल में एक म्लेच्छ ने जब उनके सतीत्व को भंग करने का प्रयास किया तो उसने इनकी आँखों में सिंहिनी का रूप देखकर अपने प्राण की रक्षा के लिए सिर पर पाँव रखकर भागा। उनका पातिव्रत्य असाधारण था और उनकी भगवद्भक्ति अप्रतिम थी।
- श्रीपद्मावती जी- श्रीपद्मावती जी साक्षात् भगवती लक्ष्मी जी की अंशस्वरूपा थीं। दिव्य सुंदरी पद्मावती का जन्म त्रिपुरा नामक नगर के एक ब्राह्मण दंपती के घर में हुआ था।भगवती लक्ष्मी के अनन्य आराधक पंडित प्रभाकर जी इनके पिता थे।श्रीपद्मावती जी को काशी में गुरु रामानन्दाचार्य जी से दीक्षा मिली और वहीं रहकर भगवदाराधन करने लगीं। गुरु ने इन्हें उपासना रहस्य का बोध कराया।
- श्रीभावानन्द जी- श्रीभावानन्द जी महाराज को जनक जी का अवतार माना जाता है। इनका मूल नाम विठ्ठलपंत था और इनकी पत्नी का नाम रुक्मिणी था। वह अत्यंत पतिव्रता थीं। इनके पितामह भगवान् विठ्ठल के अनन्य भक्त थे और आलंदी (महाराष्ट्र) में रहते थे। एक बार संतों के साथ विठ्ठलपंत काशी जा रहे थे। रास्ते में उन्हें संतों में विश्वामित्र और उनके साथ राम-लक्ष्मण की अनुभूति हुई। उन्हें भावसमाधि लग गई।काशी में उनकी दीक्षा हुई। स्वामी रामानन्दाचार्य जी की दीक्षा के बाद इनका नाम भावानन्द हो गया। बाद में वे गुरु की आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर गए और उन्हें निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव और सोपानदेव तीन पुत्र हुए और सिद्धयोगिनी मुक्ताबाई उनकी बेटी थी।उनके तीनों पुत्र कालांतर में महान संत हुए। ज्ञानदेव महाराज ने अल्पवय में गीता की ज्ञानेश्वरी टीका की,जो अत्यंत प्रसिद्ध है।इनका समाधिस्थल आलंदी में है।
चिंतनधारा और धार्मिक अवदान
श्रीमदाद्य जगद्गुरु रामानन्दाचार्यय जी ने जिस वैष्णव वैरागी संप्रदाय की स्थापना की थी, उसे बाद में रामानन्दी संप्रदाय के नाम से जाना जाने लगा। यह रामानन्दी संप्रदाय या रामावत संप्रदाय आज वैष्णव परंपरा का सर्वोपरि धार्मिक संप्रदाय है।यह संप्रदाय अखिल भारत में प्रसरित है। परंतु, अयोध्याधाम, चित्रकूट, नासिक, हरिद्वार में इसके शताधिक मठ-मंदिर हैं। काशी के पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ विश्व भर के रामानन्दियों का मूल गुरुस्थान माना जाता है।ये सगुण-निर्गुण रामभक्ति परंपरा का मूल आचार्य पीठ है। वैष्णवों के बावन द्वारों में सर्वाधिक बत्तीस द्वार इसी संप्रदाय से संबद्ध हैं।
स्वामी रामानन्दाचार्य स्पष्टरूपेण सगुणोपासक थे और उनका सिद्धांत विशिष्टाद्वैत ही था। उन्होंने श्रीसंप्रदाय के विशिष्टाद्वैत के दर्शन और प्रपत्ति सिद्धांत को आधार बनाकर रामावत संप्रदाय का गठन किया। विद्वान् मानते हैं- ध्यान के लिए राम,लक्ष्मण और सीता जी के ध्यान का आदेश है। सीता जी प्रकृतिस्थानीय, लक्ष्मण जी जीवस्थानीय और भगवान् रामचंद्र ईश्वर तत्त्व के द्योत्तक हैं। मुक्ति का साधन एक ही परम पदार्थ भक्ति है। भगवान् श्रीरामचंद्र ही समस्त संशयों के छेदक, परम जाप्य तथा प्राप्य हैं। इनकी भक्ति-पद्धति का प्रभाव रामभक्ति-परंपरा पर प्रत्यक्ष लक्षित होता है। गोस्वामी तुलसीदास भी इनकी विचारधारा से परिचित ही नहीं,पूर्णतया प्रभावित थे।”
रचनाएँ
स्वामी रामानन्दाचार्य द्वारा विरचित अनेक ग्रंथों की चर्चा की जाती है, परंतु विद्वान् इनके दो ग्रंथों- वैष्णवमताब्जभास्कर तथा श्रीरामार्चन पद्धति को उनकी प्रमाणिक रचना मानते हैं। प्रथम ग्रंथ इस संप्रदाय का आधार ग्रंथ है और दूसरे ग्रंथ में श्रीराम के अर्चन की अत्यंत सुंदर पद्धति वर्णित है।इसके अतिरिक्त ब्रह्मसूत्र आनन्दभाष्य, उपनिषद् आनन्द भाष्य, श्रीमद्भगवद्गीता आनन्दभाष्य उनकी रचना कही गई है।
युगीन वैशिष्ट्य
स्वामी रामानन्दाचार्य ऐसे समन्वयकारी युगीन वरेण्य संत थे कि उनके अधिकतर शिष्यों में जहाँ श्रीराम की सगुणोपासना की मूल धारणा दृढ़ थी, वहाँ संत कबीर और संत रैदास ने निर्गुण राम की उपासना कीं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि यह एक ऐसा समय था जब पूरा भारतवर्ष सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक दृष्टि से पतनोन्मुखी हो गया था। विद्वानों ने इस दृष्टि से भी विस्तारपूर्वक विचार किया है। विस्तारभयात् इतना ही कहना श्रेयस्कर होगा कि स्वामी रामानन्दाचार्य ने विराट वामन के समान अपने पग को बढ़ाते हुए भारतवर्ष की धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की मूर्छित चेतना को संजीवनी प्रदान कर पुनर्जीवित किया। ऐसा कहा जाता है कि इनकी यौगिक शक्ति के चमत्कार से प्रभावित होकर मुगल शासक मोहम्मद तुगलक ने हिंदुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजिया कर हटाने का निर्देश दिया था। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरि सिंह के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामी रामानन्दाचार्य जी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था।